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Friday, October 26, 2012

शरद पूर्णिमा

ब्रजराज तेरी याद भुलाई नहीं जाती 
ये प्रेम कहानी है, सुने नहीं जाती 
तुम मेरे मसीहा हो, करो दर्द का दावा 
उठी टीस कलेजे में, दबाई नहीं जाती 
मुझे इतनी पिला दे, के फिर होश ही न आये 
या साफ़ कहदे की पिलाई नहीं जाती 
मै ढूंढ रहीं हूँ मगर, तेरा दर नहीं मिलता 
दर दर की ठोकरें हैं, खाई नहीं जाती 


वृन्दावन की गोपियों से लेकर दर्द दीवानी मीरा तक, इस सांवरी सलोनी सूरत के अनेक दीवाने और आशिक हुए हैं और हर प्रेमी का भाव इतना विलक्षण होता है कि चर्चा करते करते ज़िन्दगी छोटी लगने लगती है। हर प्रेमी अपने अलग ढंग से अपने ठाकुर को रिझाता है और अपने अनोखे भाव ठाकुर के चरणों में समर्पित करता है। कोई सकाम भक्ति करता है तो कोई निष्काम भक्ति करता है। कोई उनसे कुछ नहीं चाहता तो कोई उनसे सब कुछ चाहता है। हर भक्त उनके अलग अलग रूप की पूजा करता है, कोई बनके बिहारी को मानता  है, कोई राधा रमण को, कोई राधा वल्लभ को, कोई द्वारिकाधीश को तो कोई श्री नाथ जी को। परन्तु कन्हैया के हर प्रेमी के ह्रदय में एक समानता होती है, उनका हर भक्त उनके साथ रास करना चाहता है। ये इच्छा हर साधक के मन में होती है की प्रभु उसे भी अपने उस दिव्य महारास का दर्शन कराएं। बंधुओ यह महारास लीला कोई साधारण लीला नहीं है। मुझे तो उन पर दया आती है जो इस अद्भुत लीला को संदेह की निगाह से देखते है। बड़े बड़े योगी और स्वयं योगेश्वर भगवन शिव अपने ध्यान में इसी महारास का चिंतन करते हैं और उन्हें भी इसके दर्शन नहीं हो पाते। श्रीमद्भागवत जैसे परम विशाल ग्रन्थ में भी महारास का विस्तृत वर्णन नहीं मिलता। श्री शुकदेव जी महाराज भी इस लीला के रहस्य को रजा परीक्षित से छुपा गए क्यूंकि इस महारास का वर्णन नहीं, इसका तो केवल दर्शन हो सकता है। इसका वर्णन कौन करेगा? और इसका दर्शन भी और कोई नहीं स्वयं किशोरी जी अपने कृपा पात्रों को कराती है। जैसा की पूज्य गुरुदेव बताते हैं, महारास तक पहुँचने की तीन सीढियां हैं, सबसे पहले तो हमें संसार की मोह-माया से विरक्त होके श्री धाम वृन्दावन में वास करना होता है, उसके बाद किसी रसिक आचार्य की शरण में स्वामी जी का दास बनना होता है और जब हमारी भक्ति परिपक्व स्तिथि पे पहुच जाएगी तो राधे जू कृपा करेंगी और हमें रास का दर्शन होगा। 


ये महारास की लीला भगवन ने द्वापर युग में रचाई थी और आज से साढ़े पांच हज़ार वर्ष पूर्व इस लीला का विश्राम भी हो गया था, परन्तु आज से 500 वर्ष पूर्व जब अनन्य रसिक नृपति स्वामी श्री हरिदास जी महराज जब वृन्दावन पधारे तो निधिवन के कुंजो में उन्होंने पुनः इस महारास की दिव्या लीला का प्रारंभ करवाया और यह परंपरा आज तक निधिवन में प्रतिदिन होती है, हर रात वहां रास होता है। और इस निकुंज की लीला का वर्णन स्वामी जी ने अपने पदों में किया जिनका संग्रह केलिमाल में हमें प्राप्त होता है। स्वामी जी ने रास में कितना सुंदर लिखा है:
सुन धुन मुरली वन बाजे हरी रास रचो 
कुञ्ज कुञ्ज द्रुम बेली प्रफुल्लित, मंडल कंचन मणिन खचो 
निरखत जुगल किशोर जुबती जन, मन मेरे राग केदारो मचो 
श्री हरिदास के स्वामी श्यामा, नीके री आज प्यारो लाल नचो 


इस महारास का एक अटूट अंग गोपी गीत भी है। गोपी गीत के बारे में तो किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है। भागवत पुराण के प्राण बसते हैं गोपी गीत में। और गोपी गीत का कारन भी हमें ज्ञात ही है। जब भगवन गोपियों के अहंकार को दूर करने के लिए उनके सामने से अदृश्य हुए थे तो गोपियों ने सुर में रुदन किया था और इस गोपी गीत को गया था। गोपियाँ यमुना से पूछती थी, कभी निधिवन से पूछती थी, कभी तुलसी से पूछती थी और जब भगवान् नहीं मिले तो गोपियों ने ढूंढना बंद कर दिया और फिर वो प्रभु के प्रेम में खो गयी। वास्तविकता में भी इस दुनिया के लोग ढूँढने से मिलते होंगे, पर मेरे बनके बिहारी तो खोने से ही मिलते है। "किसी से उनकी मंजिल का पता पाया नहीं जाता, जहाँ वो हैं फरिश्तों से वहां जाया नहीं जाता". किसी भक्त ने गोपियों के भावों को बड़े सुंदर शब्द में लिखा जो आपको बताना चाहता हूँ:

सबब रूठने का बता कर तो जाते 
हमें भी ज़रा आजमाकर तो जाते 
फिज़ाओं से पुछा कई बार तुमको 
झलक बस ज़रा सी दिखा कर तो जाते 
मुस्कुरा रही थी चमन में बहारें
मुहब्बत के नगमे सुना कर तो जाते 
दिया दर्द-इ-दिल कोई शिकवा नहीं है 
पता तुम अपना बता कर तो जाते 
अगर बेसबब थी हमारी शिकायत 
ज़रा आँख हमसे मिलाकर तो जाते
ज़रा और रुकते तो होती इनायत 
जनाज़ा हमारा उठा कर तो जाते  

गोपी और महारास के भावों का वर्णन करना तो इस लेख की सीमाओं से परे है और ये तुच्छ बुद्धि भी इस लायक नहीं है की निकुंज लीला के एक कण की भी चर्चा कर सके। मैंने तो केवल एक छोटा सा प्रयास किया है की आपको रास के रस से अवगत करा सकूँ। यह महारास लीला अश्विन पूर्णिमा के दिन ही हुई थी जिसे हम शरद पूर्णिमा के रूप में जानते हैं। इस वर्ष शरद पूर्णिमा 29 अक्टूबर को मनाई जाएगी और वृन्दावन के भक्ति मंदिर में 'साध्वी' पूर्णिमा जी (पूनम दीदी) की भाव पूर्ण भजन संध्या का विशाल आयोजन किया गया है। आप सब भक्त वहां सादर आमंत्रित हैं। शरद पूर्णिमा के दिन तो वृन्दावन के दर्शनों का अति विशेष महत्व है। अपने देखा होगा की ठाकुर श्री बांके बिहारी जी कभी अपने हाथ में मुरली नहीं रखते, परन्तु शरद पूर्णिमा के संध्या कालीन दर्शनों में बिहारी जी के हाथ में मुरली, कटी काछनी और सर पर मोर-मुकुट का श्रृंगार होता है। बिहारी जी अपने कक्ष से बहार भक्तों के समीप आ जाते है। मंदिर के प्रांगन को एक वन का रूप दिया जाता है जिसमे एक चांदी के घरोंदे में प्रभु आसीन होते हैं। सांवली सूरत पे पूर्ण श्वेत पोशाक इस प्रकार सुशोभित होती है जैसे अँधेरे आकाश में चन्द्रमा। आ के दिन तो चाँद के भी भाग्य उदय हो जाते हैं क्यूंकि आज तो मंदिर उस समय तक खुला रहता है जब तक चाँद बिहारी जी के चरणों को स्पर्श ना कर ले। आप सब जानते होंगे की बिहारी जी पश्चिम दिशा में पूर्व की तरफ मुख करके खड़े हुए हैं और शरद पूर्णिमा पे चाँद भी पूर्व से ही उदय होता है। इसलिए आज मंदिर के सामने वाली खिड़की और रोशनदान खोल दिए जाते हैं जिससे चाँद दर्शन पा सके। 


बिहारी जी के श्रृंगार यूँ तो अनंत हैं, पर फिर भी मर्यादाओं का पालन करते हुए मै यहीं अपने शब्दों को विराम देता हूँ और यही प्रार्थना करता हूँ की हमें प्रभु के चरणों का नुराग इसी प्रकार बना रहे और हमें भी वो मुरली वाला एक दिन गोपी बनाकर अपने साथ रास में ले चले। इसी आशा को मन में रखते हुए मई आप सबको हमारे परिवार की तरफ से शरद पूर्णिमा की बहुत बहुत शुभकामना देता हूँ और गुरु चरणों में प्रणाम करता हूँ। 


~~~~~~~ श्री राधे ~~~~~~ 




Saturday, October 13, 2012

नवरात्रों के रंग, शेरोंवाली के संग

आप सब लोग समझ ही गए होंगे कि आज के लेख की पृष्ठभूमि क्या है. आज एक बात आप सब बंधुओ को दिल से बताना चाहता हूँ. बहुत दिनों से दिल में एक अरमान है और एक उत्सुकता है कि आप लोगों को एक लीला का दर्शन अपने लेख के माध्यम से करवाऊं जो मुझे विश्वास है कि अधिकतर भक्तों ने नहीं सुनी होगी. परन्तु धन्य है ये हमारे भारत की भूमि जहाँ एक के बाद एक पर्व और त्यौहार आते ही रहते हैं और मुझे आपको इन सबके विषय में कुछ बताने का दिल करता है. कई बार गहन चिंतन में डूबता हूँ तो ये ख्याल आते हैं कि अगर इन त्यौहारों के रंग हमारे जीवन में न हो, तो यह जिंदगी जो पहले से ही इतनी चिंतामग्न रहती है और भी नीरस हो जायेगी और इसे संभालना एक बोझ हो जायेगा. इन त्यौहारों के माध्यम से हमारे जीवन में हर्षोल्लास और एक सकारात्मक उर्जा का प्रसार होता है जो हमारी मुश्किलों मो कम तो नहीं करती परन्तु उनका सामना करने कि शक्ति हमें प्रदान करती है. जब जिंदगी की परेशानियों से हाम हारने लगते हैं तो यह पर्व ही हैं जो हमें कहते हैं कि क्या हुआ अगर मुसीबतें हैं मत भूल कि यहाँ मज़ा भी बड़ा आता है. और जब इन सतरंगी त्यौहारों के साथ अध्यात्म का आठवां रंग मिल जाए तो आनंद की सीमा नहीं रहती और वैसे भी बंधुओ ये तो हमारे पूर्वजों की मान्यताएं हैं कि किसी तिथि को हम विशेष रूप से मनाने लगते हैं वर्ना तो जिस दिन इश्वर का आगमन हमारे जीवन में हो जाये वो हर दिन होली और हर रात दिवाली है. इसलिए संत कितना सुंदर कहते हैं 

तुम्हारा आना फाल्गुन की बहारों जैसा है
तुम्हारा आना सावन की फुहारों जैसा है
ये शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की तिथियाँ क्या गिनना
तुम्हारी तो याद का आना भी त्यौहारों जैसा है

और धन्य हैं हमारे त्यौहार जो केवल इश्वर की याद नहीं दिलाते अपितु भगवान को ही हमारे आंगन में उतार लातें हैं और धन्य हैं हम जो हमें इस पवित्र भूमि भारत में जन्म लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ. वैसे तो पितृ-पक्ष के साथ त्यौहारों का मौसम दस्तक दे ही चुका है, पर जो पर्व हम श्राद्ध विसर्जन के ठीक अगले दिन शुरू करेंगे उसका नाम है "नवरात्र".


महामाया, महादायालू, महाशक्ति, सुख्करनी, दुख्हरनी, परम ममतामयी अष्टभुजी भवानी माँ शेरोवाली को समर्पित यह नवरात्रि पूरे भारत में बड़े धूम धाम से मनाया जाता है. चाहे वैष्णव हो, शैव हो, इस पर्व को प्रत्येक संप्रदाय के अनुयायी बड़ी श्रद्धा और भक्तिभाव से मानते हैं क्यूंकि शक्ति कि ज़रूरत तो हर किसी को पड़ती है.  यदि हम राधे जू कि भी भक्ति करते हैं और उसकी शुरुआत भी माँ जगदम्बा से ही प्रारंभ होती है. हमारे शास्त्रों में ४ बीज मन्त्रों का व्याख्यान आया है -- "एं, भ्रीम्, श्रीं और क्लीम्". ये चारों बीज मंत्र जब तक कोई साधक सिद्ध नहीं कर लेता उसे भक्ति का अनुभव होना मुश्किल है. पहला बीज मंत्र है 'एं' जिसकी अधिष्ठात्री देवी माँ दुर्गा हैं. माँ दुर्गा ही शक्तिस्वरूपा हैं. और जैसा मै पहले भी लिख चुका हूँ कि इस संसार में हम कोई भी कर्म करें भले ही वेह भक्ति से सम्बंधित न हो तो भी हमें शक्ति कि आवश्यकता होती है. यहाँ तक कि चोर को चोरी करने के लिए भी माँ दुर्गा की कृपा चाहिए. और यदि इस शक्ति को इस कृपा को हम भक्ति और अध्यात्म में इस्तमाल करें तो बात बहुत आगे बढ़ जाती है. हमें बैरंग्ताओं में भी शक्ति चाहिए. हम यदि माँ दुर्गा के विग्रह की तरफ नज़र डालें तो देखते हैं कि माँ कि आठ भुजाएं हैं जिनमे से एक हाथ से माँ आशीर्वाद दे रही है और शेष सात भुजाओं में माँ ने शस्त्र धारण कर रखे हैं. ये शस्त्र हमें डराने के लिए बल्कि असुरी वृतियों के संघार के लिए हैं. जब हम भक्ति के पथ पर अग्रसर होते है तो हमारे अंदर अनेक बुराइयां और कल्मष होते हैं. जब हम माँ दुर्गा की शरण ग्रहण करते हैं तो धीरे धीरे माँ अपनी ममता और करुना से इन सबका दमन कर देती हैं और हमें इस लायक बना देती हैं कि परमात्म तत्व की प्राप्ति हमें हो सके. इसलिए कोई भी भक्त माँ दुर्गा कि ज़रूरत को नज़रंदाज़ नहीं कर सकता, जब तक माँ कृपा न करे बात आगे बढ़ ही नहीं सकती. इसके बाद सगला बीज मंत्र है 'भ्रीम्' अर्थार्थ हृष्टि, पुष्टि और तुष्टि. हम स्वस्थ रहे क्यूंकि बिना उत्तम स्वास्थ्य के प्रभु चरणों का अनुराग नहीं हो सकता. फ़िर है 'श्रीं' जिसकी अधिष्ठात्री हैं माँ लक्ष्मी जो धन और ऐश्वर्य की देवी हैं. भक्ति मार्ग में भी हमें धन की उपयुक्त मात्रा की आवश्यकता होती है जो हमें माँ लक्ष्मी की कृपा से प्राप्त होता है और जब यह सब हो जाता है तब आता है 'क्लीम्' अर्थार्थ करुणा और प्रेम जिसकी अधिष्ठात्री हमारी बरसाने वारी राधा प्यारी है. 

उन्ही माँ दुर्गा को समर्पित यह नवरात्रे वर्ष में २ बार आते हैं और साथ मैया जी को हमारे आंगन में ले आते हैं. इस वर्ष शारदीय नवरात्रि मंगलवार, १६ अक्टूबर से प्रारंभ हो रहे हैं और बुधवार २४ अक्टूबर को दशहरा मनाया जायेगा. देश के अलग अलग प्रान्तों में इस पर्व को विभिन्न तरीकों से मनाया जाता है. बंगाल में दुर्गा पूजा के माध्यम से, गुजरात से डांडिया आदि नृत्यों के माध्यम से, और अनेक जगह प्रभु श्री राम की दिव्या लीलाओं का मंचन किया जाता है. तरीका चाहे जो भी हो, सबका उद्देश्य तो केवल आनंद की प्राप्ति होता है. हमारे देश में वैसे तो माँ वैष्णो के अनेकानेक भक्त हुए हैं जिनकी कथाएँ हम सब सुनते ही है, इनमे प्रमुख थे श्री ध्यानु जी महाराज जिनके समक्ष स्वयं अकबर भी नतमस्तक हो गया था और इस बात का प्रत्याख प्रमाण वेह छत्र है जो आज भी माँ ज्वाला के मंदिर में रखा हुआ है. परन्तु एक ऐसे शख्स हमारे बीच में आज भी उपस्थित हैं जिनके सिर पर माँ ने अपनी कृपा और करुणा का वरद हस्त रखा हुआ है. जिनकी आवाज़ हमारे घरों में, हमारे दिलों में हमेशा गूंजती रहती है, जिन्होंने अनेक भक्तों को माँ से जोड़ा है और संगीत के माध्यम से जो कई वर्षों से माँ के नाम का प्रचार निरंतर कर रहे हैं, जी हाँ, मै बात कर रहा हूँ, माँ के लाडले परम आदरणीय श्री नरेन्द्र चंचल जी की जिनकी भेंट चन्द्रमा की चांदनी से भी अधिक शीतल और सुखदायी होती हैं. मै यहाँ उनकी कुछ भेंट आप सबको उपलब्ध करा रहा हूँ और आप इन्टरनेट पर इनके अनगिनत भजनों को सुन सकते हैं. 


अंत में इसी प्रार्थना के साथ अपनी कलम को विश्राम देता हूँ कि माता राणी आप सब पे अपनी कृपा बरसाती रहे और यह नवरात्रि आपके लिए मंगलमय हों. 

श्री राधे ~~~~~ जय माता दी ~~~~~ श्री राधे 

Tuesday, October 2, 2012

आगामी कार्यक्रम

कथा व्यास


श्रधेय आ० गो० श्री मृदुल कृष्ण शास्त्री जी महाराज

04 अक्टूबर से 10 अक्टूबर : दिलशाद गार्डन, नई दिल्ली 

16 अक्टूबर से 22 अक्टूबर : नौखा, बीकानेर, राजस्थान 

1 नवम्बर से 7 नवम्बर : प्रभु टाउन, रायबरेली, उत्तर प्रदेश 

इन सभी कथाओं का सीधा उया विशेष प्रसारण केवल अध्यात्म चैनल पर देखा जा सकता है। प्रसारण के विषय पर जानकारी आपको हमारी तरफ से समय समय पर मिलती रहेगी 

.. प्रेम से कहिये श्री राधे ..